‘अलंकार’
‘अलङ्करोतीत्यलङ्कारः’ इस संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार साहित्य के क्षेत्र में काव्यशरीर(शब्द और अर्थ) को अलंकृत(सुशोभित) करने वाले अर्थ (पदार्थ) को ‘अलङ्कार’ कहा जाता है। अग्निपुराण के अनुसार काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शोभाकारक धर्म को अलङ्कार कहा जाता है-
“काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते”
जिस प्रकार लौकिक अलंकार (हार, कुण्डल, नथ आदि) मानवीय शरीर को अलंकृत करते हैं उसी प्रकार अनुप्रास-उपमा-रूपक-आदि अलंकार काव्यशरीर (शब्द और अर्थ) को अलंकृत(सुशोभित) करते हैं इसीलिए इन्हें अलंकार कहा जाता है।
परिभाषा/लक्षण
अलंकार के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करने के लिए विभिन्न काव्यशास्त्र के आचार्यों द्वारा जो परिभाषाएं की गई उनको यहां उद्धृत किया जा रहा है-
(1).साहित्यदर्पणकार-कविराजविश्वनाथ के अनुसार-
शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः।
रसादीनुपकुर्वन्तोऽङ्कारास्तेऽङ्गदादिवत्।(सा.दर्पण,दशम-परि.,कारिका-१)
हिन्दी अर्थ-शोभा को बढ़ाने वाले, रस भाव आदि के उपकारक, जो शब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म हैं वे अंगद(बाजूबन्द) कटक-कुण्डल (आभूषण) के समान अलंकार कहे जाते हैं।
(2)आचार्य-मम्मट के अनुसार-
उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् ।
हारादिवदलड़्कारास्तेऽनुप्रासोपमादय:॥(काव्यप्रकाश,अष्टम-उल्लास.का-६७)
हिन्दी अर्थ- जो विद्यमान उस अङ्गी रस को शब्द तथा अर्थरूप अङ्गो के द्वारा कभी-कभी उपकृत करते हैं, वे अनुप्रास उपमा आदि हार आदि के समान काव्य के अलंकार होते हैं।